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उप॒ प्रेत॑ कुशिकाश्चे॒तय॑ध्व॒मश्वं॑ रा॒ये प्र मु॑ञ्चता सु॒दासः॑। राजा॑ वृ॒त्रं ज॑ङ्घन॒त्प्रागपा॒गुद॒गथा॑ यजाते॒ वर॒ आ पृ॑थि॒व्याः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa preta kuśikāś cetayadhvam aśvaṁ rāye pra muñcatā sudāsaḥ | rājā vṛtraṁ jaṅghanat prāg apāg udag athā yajāte vara ā pṛthivyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। प्र। इ॒त॒। कु॒शि॒काः॒। चे॒तय॑ध्वम्। अश्व॑म्। रा॒ये। प्र। मु॒ञ्च॒त॒। सु॒ऽदासः॑। राजा॑। वृ॒त्रम्। ज॒ङ्घ॒न॒त्। प्राक्। अपा॑क्। उद॑क्। अथ॑। य॒जा॒ते॒। वरे॑। आ। पृ॒थि॒व्याः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कुशिकाः) जो करते और उपदेश देते वे कुश वे श्रेष्ठ विद्यमान हैं जिनमें वे कुशिक और जो (सुदासः) उत्तम दान देनेवाला (राजा) प्रकाशमान (प्राक्) प्रथम (अपाक्) पश्चिम और (उदक्) उत्तर से (वृत्रम्) मेघ के सदृश शत्रु का (जङ्घनत्) अत्यन्त नाश करैं (अथ) इसके अनन्तर (पृथिव्याः) पृथिवी के (वरे) उत्तम स्थान में (आ, यजाते) यज्ञ करे उसका (राये) लक्ष्मी के लिये (प्र) (मुञ्चत) त्याग करो और उस (अश्वम्) घोड़े के सदृश शीघ्र चलनेवाली बिजुली को (चेतयध्वम्) जनाओ और (उप, प्र, इत) प्राप्त होओ ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानों ! जो वीर लोग शत्रुओं का नाश करें, उनके लिये बहुत धन और प्रतिष्ठा को देवें, जिससे सम्पूर्ण दिशाओं में विजय प्रकाशित होवे ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे कुशिकाः यः सुदासो राजा प्रागपागुदग्वृत्रं जङ्घनदथ पृथिव्या वरे आ यजाते तस्य राये प्रमुञ्चताश्च चेतयध्वमुप प्रेत ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (प्र) (इत) प्राप्नुत (कुशिकाः) ये कुर्वन्त्युपदिशन्ति ते कुशाः प्रशस्ताः कुशा विद्यन्ते येषु ते कुशिकाः (चेतयध्वम्) ज्ञापयध्वम् (अश्वम्) तुरङ्गमिवाऽऽशुगामिनीं विद्युतम् (राये) श्रिये (प्र) (मुञ्चत) त्यजत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुदासः) शोभनदानः (राजा) प्रकाशमानः (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (जङ्घनत्) भृशं हन्यात् (प्राक्) पूर्वम् (अपाक्) पश्चिमतः (उदक्) उत्तरतः (अथ)। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यजाते) यजेत (वरे) उत्तमे देशे (आ) (पृथिव्याः) ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ये वीराः शत्रून् हन्युस्तेभ्यः पुष्कलं धनं प्रतिष्ठां च दद्युः। येन सर्वासु दिक्षु विजयः प्रकाशेत ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जे वीर लोक शत्रूंचा नाश करतात त्यांना पुष्कळ धन देऊन मान द्यावा. ज्यामुळे त्यांना सर्वत्र विजय प्राप्त व्हावा. ॥ ११ ॥